MA Semester-1 Sociology paper-II - Perspectives on Indian Society - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र द्वितीय प्रश्नपत्र - भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र द्वितीय प्रश्नपत्र - भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2682
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र द्वितीय प्रश्नपत्र - भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य

प्रश्न- परम्परागत भारतीय समाज के विशिष्ट लक्षण एवं संरूपण क्या हैं?

उत्तर -

परम्परागत भारतीय समाज के विशिष्ट लक्षण एवं संरूपण

भारतीय समाज के प्रमुख आधारों को जब हम देखते हैं जिन पर यह विशाल समाज और संस्कृति टिकी है, तो हमारा ध्यान प्रमुख रूप से दो बातों पर जाता है - प्रथम, व्यक्ति और समाज का सन्तुलित समन्वय (जिसमें व्यक्ति और समाज दोनों के कर्त्तव्य निहित हैं), एवं दूसरा, विश्व बन्धुत्व की भावना और उसका प्रसार जिसके कारण सांस्कृतिक समन्वय हो पाया है। भारतीय समाज के परम्परागत भारतीय समाज के विशिष्ट लक्षण एवं संरूपण को निम्नांकित प्रकार से देखा जा सकता है-

(1) प्राचीनता - विश्व की अन्य संरचनाओं की तुलना में भारतीय संरचना बड़ी प्राचीन है। इसके मौलिक सिद्धान्त आज भी वही हैं जो प्राचीन काल में थे। अन्य संस्कृतियों का इस पर जो भी प्रभाव पड़ा है उससे यह और भी समृद्ध हुई है। इसने प्रायः संसार की सभी संस्कृतियों का उत्थान एवं पतन देखा है। हजारों वर्ष पहले की बातें आज भी भारतीय संस्कृति में जीवित हैं। उदाहरण के लिए- आज भी भारत में वैदिक धर्म का प्रचलन है तथा जाति व्यवस्था एवं संयुक्त परिवार प्रणाली की प्रधानता है। अतः भारतीय संस्कृति एक प्राचीन संस्कृति कही जा सकती है जिसका अतीत आज भी जीवित है।

(2) स्थायित्व - अत्यधिक प्राचीन होते हुए भारतीय सामाजिक संरचना आज भी जीवित है और निरन्तर पल्लवित हो रही है। इसके सिद्धान्त आज भी उतने ही क्रियाशील हैं जितने प्रारम्भ में थे। आज जबकि उसकी समकालीन संस्कृतियाँ खण्डहरों के रूप में है, यह अनेक सामाजिक परिवर्तनों के साथ स्वयं भी बदलती गई है परन्तु समाप्त नहीं हुई अपितु आज तक जीवित है। सामाजिक और आर्थिक जीवन में महान् परिवर्तनों के बाद भी, इसके मौलिक सिद्धान्त आज भी वही हैं और पूजनीय हैं, इसकी परम्पराएँ वही हैं और आज भी यह निर्माण की दशा में है। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध अमेरिकी विद्वान् बिलड्यूरेण्ड ने कहा यहाँ मोहनजोदड़ो से गाँधी, टैगोर तक उन्नति और सभ्यता का शानदार सिलसिला जारी है। कोई भी विद्वान् मिस्र, बेबीलोन और सीरिया की संस्कृति की तरह इसके इतिहास को समाप्त नहीं कर सकता क्योंकि यह अब भी निर्माण की अवस्था में है।

(3) सहिष्णुता - भारतीय समाजिक संरचना में सहिष्णुता का गुण पाया जाता है अर्थात् यह सभी संस्कृतियों के गुणों को समय और आवश्यकतानुसार आत्मसात् करती रही है। इसकी सबसे प्राचीन पुस्तक 'ऋग्वेद' में कहा गया है, "एव सत् विप्रा बहुधा वदन्ति" अर्थात् एक ही परमात्मा का ज्ञानीजन अनेक प्रकार से वर्णन करते हैं। 'गीता' में भी भगवान् श्रीकृष्ण ने ऐसा ही विचार व्यक्त किया है कि अन्य देवताओं की श्रद्धापूर्वक पूजा करने वाले मेरी ही पूजा करते हैं। इसके विपरीत, अन्य संस्कृतियों में ऐसे भावों का अभाव पाया जाता है। भारत मं हिन्दू, सिक्ख, मुस्लिम, ईसाई, जैन, बौद्ध सभी धर्मों के लोग निवास करते हैं तथा उनमें एक-दूसरे के प्रति कठोरता या द्वेष भाव नहीं पाए जाते हैं। इस सहिष्णुता ने भारतीय संस्कृति को निरन्तता प्रदान की है।

(4) अनुकूलन क्षमता या अनुकूलनशीलता - समय, देश और परिस्थितियों के अनुसार बदलने की प्रक्रिया को अनुकूलनशीलता कहते हैं। किसी भी संस्कृति के दीर्घ जीवन के लिए यह बहुत आवश्यक तत्त्व होता है। शायद विश्व की बहुत-सी संस्कृतियाँ इसलिए समाप्त हो गईं कि वे समय के अनुसार अपने को नहीं ढाल सकी। यदि वैदिक काल से लेकर वर्तमान तक हम अपनी संस्कृति का अवलोकन करें तो पाते हैं कि हमारी अनेक क्रियाएँ बदल गई हैं पर हमारे आदर्शों, संस्कारों, रूढ़ियों और परम्पराओं में बदलाव अधिक नहीं आया है। वे आज भी वहीं हैं। हाँ, हमारा भौतिक दृष्टिकोण बहुत बदला है। बहुत-सी संस्कृतियों से हमारा सम्पर्क भी हुआ है, पर हमारी संस्कृति समाप्त नहीं हो सकी है वरन् उसने दूसरी संस्कृतियों को अपने में आत्मसात् कर लिया है। इसी अनुकूलन क्षमता एवं समन्वयता के कारण हमारी संस्कृति आज भी जीवित है।

(5) सर्वाङ्गीणता - विशद् रूप से यदि हम अपनी सामाजिक संरचना का अवलोकन करें तो पाते हैं कि वह जीवन के किसी एक पहलू को लेकर नहीं चलती वरन् यह जीवन के सभी पक्षों से सम्बन्धित है। भारतीय संस्कृति यह मानकर चलती है कि मानव का जीवन उद्देश्यपूर्ण है और उसका आशय ऐच्छिक लौकिक उन्नति करना है। सम्पूर्ण मानव जीवन के चार प्रमुख भागों में विभक्त किया जा सकता है - शारीरिक, मानसिक, आत्मिक और भावात्मक। भारतीय संस्कृति मनुष्य के सभी पक्षों के सन्तुलित विकास का प्रयास करती है, जबकि अन्य संस्कृतियाँ एकांगी हैं; जैसे पाश्चात्य संस्कृति केवल भौतिकता को प्राथमिकता देती है। अतः हम यह कह सकते हैं कि हमारी संस्कृति जीवन और समाज के सर्वांगीण विकास पर बल देती है।

(6) ग्रहणशील प्रकृति - ग्रहणशीलता भारतीय सामाजिक संरचना की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। किसी भी संस्कृति का दीर्घ जीवन इस बात पर निर्भर करता है कि आकस्मिक रूप से अन्य संस्कृतियों के सम्पर्क में आने पर उनकी अच्छाइयों को ग्रहण कर सके। भारतवर्ष में सदा से ही विदेशी संस्कृतियाँ आक्रमण करती रही हैं, पर भारतीय संस्कृति की पाचन शक्ति बड़ी विशाल रही है। उसका यह लचीलापन है कि नीग्रो से हूणों तक सभी प्रजातियाँ और संस्कृतियाँ यहाँ खप गईं। इस विशेषता को पाश्चात्य विद्वान् बड़े आश्चर्य से देखते हैं। डाइबेल ने लिखा है कि भारतीय संस्कृति महासमुद्र के समान है जिसमें अनेक नदियाँ आकर मिलती हैं। इसी प्रकार, स्मिथ का कहना है कि सभी जातियों ने भारतीय संस्कृति के सामने घुटने टेक दिये और बड़ी शीघ्रता से वे हिन्दुत्व में विलीन हो गईं।

(7) सामाजिक श्रेणीबद्धता - धर्म के बाद भारतीय सामाजिक संरचना का एक अन्य प्रमुख आधार या लक्षण सामाजिक श्रेणीबद्धता है। यह परम्परा भारतीय सामाजिक संरचना को इतना अधिक प्रभावित करती है कि अनेक विद्वानों ने हिन्दू सामाजिक संगठन को विश्व की सर्वाधिक सामाजिक असमता वाली संरचना कहा है। भारतीय समाजिक संरचना में श्रेणीबद्धता के प्रमुख आधार वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था हैं।

(अ) वर्ण व्यवस्था - मानवों की जन्मजात प्रवृत्तियाँ भी तीन प्रकार की हो सकती हैं- सत, रज एवं तम। सत और तम परस्पर विलोम प्रवृत्तियाँ हैं। एक की उपस्थिति, दूसरी की अनुपस्थिति है। इसलिए सत और रज का मिश्रण हो सकता है या रज और तम का मिश्रण हो सकता है। तदनुसार भारतीय सामाजिक संरचना में व्यक्तियों को चार वर्णों में बाँटा गया। पहली श्रेणी उन व्यक्तियों की थी जो शुद्ध रूप से सात्विक प्रवृत्ति के थे वे ही ब्राह्मण कहलाए। दूसरी श्रेणी उन व्यक्तियों की थी जिनमें रजो गुण प्रधान था परन्तु सात्विक वृत्ति का अंश भी मौजूद था। वे ही क्षत्रिय कहलाए। तीसरी श्रेणी उन मनुष्यों की बनी जिनमें राजसिक तत्त्व तो शेष था परन्तु तामसिक वृत्ति का भी मिश्रण हो गया था, उन्हें वैश्य वर्ण की संज्ञा दी गई। अन्तिम रूप से ऐसे व्यक्ति शेष रह जाते हैं जो विशुद्ध रूप से तामसिक प्रवृत्ति के थे, वे शूद्र श्रेणी में रखे गए।

(ब) जाति व्यवस्था - भारतीय सामाजिक श्रेणीबद्धता का दूसरा मौलिक सिद्धान्त जाति व्यवस्था है। जाति व्यक्तियों की एक वह श्रेणी है जिसमें सदस्याता जन्म के आधार पर मिलती है। सामान्यतः जिस जाति में व्यक्ति जन्म लेता है उसी में मृत्युपर्यन्त जीवन व्यतीत करता है। इसके दो अन्य प्रमुख लक्षण और भी हैं- एक, यह अन्तर्विवाही होती है अर्थात् व्यक्ति का विवाह अपनी जाति में ही हो सकता है, और दूसरा, इसमें सांस्कारिक शुद्धता का विचार लागू होता है।

(8) पुरुषार्थ - भारतीय सामाजिक संरचना, विशेषतः हिन्दू सामाजिक संरचना में परम्परा की दृष्टि से मानव जीवन के चार लक्ष्य बताए गए हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। धर्म मानव आचरण की संहिता है। धर्म ही मनुष्य और पशु को पृथक् करने वाला तत्त्व है। मोक्ष अन्तिम लक्ष्य है जो इस सांसारिक जीवन के उपरान्त प्राप्त होता है। अर्थ से आशय व्यक्ति की भौतिक क्रियाओं से है जो धन उत्पादन और उपभोग से सम्बन्धित है। व्यक्ति को धन से दूर नहीं भागना है क्योंकि वह साधन के रूप में खुद व्यक्ति एवं समाज का अस्तित्व है। इसी भाँति, काम से आशय व्यक्ति की कोमल भावनाओं एवं वासनाओं से है। प्रेम और यौन इसके विषय हैं। ललित कलाओं का जन्म इसकी प्रेरणा से ही होता है। साथ ही, इन चार पुरुषार्थों के सन्दर्भ में यह तथ्य उल्लेखनीय है कि इनमें धर्म और अर्थ साधन मूल्य हैं और काम तथा मोक्ष साध्य।

(9) कर्म एवं पुनर्जन्म - भारतीय सामाजिक संरचना, विशेषतः हिन्दू सामाजिक संरचना में कर्म पुनर्जन्म का भी एक प्रमुख स्थान रहा है। हिन्दू धर्म व्यक्ति को अच्छे कार्य करने के लिए प्रेरित करता है। वस्तुतः कर्म एवं पुनर्जन्म के विचार हिन्दुओं के लिए हर युग में प्रेरणा का प्रमुख स्रोत रहे हैं। इनकी आशावादी प्रेरणा ने भारतीय समाज का सदा ही प्रत्येक प्रकार की परिस्थिति में विकास के अक्सर प्रदान किए हैं और भाग्यवादी पक्ष ने सामान्य जीवन को संगठित रखने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। कर्म एवं पुनर्जन्म की प्रभावशीलता और व्यापकता इतनी विशाल रही है कि हिन्दू धर्म के कट्टर आलोचक बौद्ध और जैन धर्मों ने भी इन विचारों को स्वीकार किया तथा इन धर्मों में भी इनका उतना ही महत्त्व है जितना कि हिन्दू धर्म में है।

(10) संस्कार - भारतीय सामाजिक संरचना में संस्कारों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। वैदिक युग से ही संस्कारों को महत्त्वपूर्ण माना गया है और आर्यों की यह आस्था थी कि संस्कारों के उचित सम्पादन द्वारा मनुष्य को प्रताप व तेजस्विता की प्राप्ति होती है। संस्कार से अभिप्राय शुद्धि की धार्मिक क्रियाओं तथा व्यक्ति के बौद्धिक, मानसिक व वैदिक परिष्कार के लिए किए जाने वाले अनुष्ठान से है जिससे वह समाज का पूर्ण विकसित सदस्य बन सके। हिन्दुओं के अतिरिक्त, अन्य सभी सम्प्रदायों के भी अपने अलग-अलग संस्कार हैं।

(11) पितृसत्ता - पितृसत्ता का नियम ही पुरुष प्रधानता का आधार हैं। अधिकांशतः भारतीय सामाजिक संरचना में स्त्रियों की तुलना में पुरुषों को ऊँचा दर्जा प्राप्त है। 'मनुस्मृति' तो' यहाँ तक कहती है कि नारी को कभी स्वतन्त्र जीवन बिताने अथवा निर्णय लेने का अधिकार नहीं है। बाल्यकाल में वह पिता के संरक्षण में रहती है, यौवनकाल में पति के और बुढ़ापे में पुत्र के संरक्षण में जीवन व्यतीत करती है। इस सिद्धान्त के दो व्यावहारिक परिणाम हुए - पहला, स्त्री निरन्तर निर्भरता अथवा संरक्षण की स्थिति में हो गई, और दूसरा, उसकी कोई निजी अस्मिता नहीं रही। वह 'अमुक' की लड़की, 'अमुक' की पत्नी अथवा 'अमुक' की माँ के रूप में ही जानी जाती रही। आज के युग में शिक्षित एवं रोजगार में लगी स्त्री अपनी निज की अस्मिता खोजना चाहती है और इसे स्थापित करना चाहती है। स्वभावतः यह पितृसत्ता अथवा पुरुष- प्रधानता उसके लिए मानसिक एवं सामाजिक संघर्ष की स्थिति पैदा कर रही है।

( 12 ) ग्राम प्रधानता भारतीय सामाजिक संरचना का एक अन्य प्रमुख परम्परागत आधार ग्राम प्रधानता रही है। भारतीय सामाजिक संरचना वस्तुतः ग्रामीण संगठन पर आधारित रही है। ग्रामीण समुदाय का आधार कृषि रहा है और जीवन के अनेक तीज-त्योहार कृषि से ही सम्बन्धि त हैं। भूमि का महत्त्व भू-स्वामित्व को सामाजिक प्रतिष्ठा का आधार बनाता है। इसलिए भारतीय सामाजिक संरचना को तीन स्तरों में समझा जा सकता है प्रथम, अभिजात संस्कृति जो पढ़े-लिखे वर्ग में शास्त्रों पर आधारित संस्कृति रही है, दूसरी, नगरीय संस्कृति जो शास्त्रीय संस्कृति के साथ-साथ कुछ लोक संस्कृति के तत्त्व भी रखती है और तीसरी, ग्राम संस्कृति अथवा लोक संस्कृति। इसी संस्कृति का हिन्दू समाज में बाहुल्य है।

(13) पौराणिक गाथाएँ एवं प्रतीक - भारतीय सामाजिक संरचना के परम्परागत आधारों में अन्तिम आधार पौराणिक गाथाओं एवं प्रतीकों का है। रामायण और महाभारत वे महाकाव्य हैं जो अनेक पौराणिक गाथाओं क आदि - स्रोत हैं। प्रत्येक त्योहार, व्रत आदि के साथ लोक कथाएँ जुड़ी हैं। इसी भाँति, ओ३म्, सतिया, नवगृह भी भारतीयों के धार्मिक प्रतीक हैं जिनका विशिष्ट अर्थ है। सामाजिक प्रतीकों में पुरुष के लिए चन्दन और तिलक तथा नारी के लिए बिन्दी, सिन्दूर, चूड़ियाँ व बिछुए महत्त्वपूर्ण प्रतीक हैं।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- लूई ड्यूमाँ और जी. एस. घुरिये द्वारा प्रतिपादित भारत विद्या आधारित परिप्रेक्ष्य के बीच अन्तर कीजिये।
  2. प्रश्न- भारत में धार्मिक एकीकरण को समझाइये। भारत में संयुक्त सांस्कृतिक वैधता परिलक्षित करने वाले चार लक्षण बताइये?
  3. प्रश्न- भारत में संयुक्त सांस्कृतिक वैधता परिलक्षित करने वाले लक्षण बताइये।
  4. प्रश्न- भारतीय संस्कृति के उन पहलुओं की विवेचना कीजिये जो इसमें अभिसरण. एवं एकीकरण लाने में सहायक हैं? प्राचीन भारतीय संस्कृति की चार विशेषतायें बताइये? मध्यकालीन भारतीय संस्कृति की चार विशेषतायें बताइये? आधुनिक भारतीय संस्कृति की चार विशेषतायें बताइये? समकालीन भारतीय संस्कृति की चार विशेषतायें बताइये?
  5. प्रश्न- प्राचीन भारतीय संस्कृति की चार विशेषतायें बताइये।
  6. प्रश्न- मध्यकालीन भारतीय संस्कृति की चार विशेषतायें बताइये।
  7. प्रश्न- आधुनिक भारतीय संस्कृति की चार विशेषतायें बताइये।
  8. प्रश्न- समकालीन भारतीय संस्कृति की चार विशेषतायें बताइये।
  9. प्रश्न- भारतीय समाज के बाँधने वाले सम्पर्क सूत्र एवं तन्त्र की विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- परम्परागत भारतीय समाज के विशिष्ट लक्षण एवं संरूपण क्या हैं?
  11. प्रश्न- विवाह के बारे में लुई ड्यूमा के विचारों की व्याख्या कीजिए।
  12. प्रश्न- पवित्रता और अपवित्रता के बारे में लुई ड्यूमा के विचारों की चर्चा कीजिये।
  13. प्रश्न- शास्त्रीय दृष्टिकोण का महत्व स्पष्ट कीजिये? क्षेत्राधारित दृष्टिकोण का क्या महत्व है? शास्त्रीय एवं क्षेत्राधारित दृष्टिकोणों में अन्तर्सम्बन्धों की विवेचना कीजिये?
  14. प्रश्न- शास्त्रीय एवं क्षेत्राधारित दृष्टिकोणों में अन्तर्सम्बन्धों की विवेचना कीजिये?
  15. प्रश्न- इण्डोलॉजी से आप क्या समझते हैं? विस्तार से वर्णन कीजिए।.
  16. प्रश्न- भारतीय विद्या अभिगम की सीमाएँ क्या हैं?
  17. प्रश्न- प्रतीकात्मक स्वरूपों के समाजशास्त्र की व्याख्या कीजिए।
  18. प्रश्न- ग्रामीण-नगरीय सातव्य की अवधारणा की संक्षेप में विवेचना कीजिये।
  19. प्रश्न- विद्या अभिगमन से क्या अभिप्राय है?
  20. प्रश्न- सामाजिक प्रकार्य से आप क्या समझते हैं? सामाजिक प्रकार्य की प्रमुख 'विशेषतायें बतलाइये? प्रकार्यवाद की उपयोगिता का वर्णन कीजिये?
  21. प्रश्न- सामाजिक प्रकार्य की प्रमुख विशेषतायें बताइये?
  22. प्रश्न- प्रकार्यवाद की उपयोगिता का वर्णन कीजिये।
  23. प्रश्न- प्रकार्यवाद से आप क्या समझते हैं? प्रकार्यवाद की प्रमुख सीमाओं का उल्लेख कीजिये?
  24. प्रश्न- प्रकार्यवाद की प्रमुख सीमाओं का उल्लेख कीजिये।
  25. प्रश्न- दुर्खीम की प्रकार्यवाद की अवधारणा को स्पष्ट कीजिये? दुर्खीम के अनुसार, प्रकार्य की क्या विशेषतायें हैं, बताइये? मर्टन की प्रकार्यवाद की अवधारणा को समझाइये? प्रकार्य एवं अकार्य में भेदों की विवेचना कीजिये?
  26. प्रश्न- दुर्खीम के अनुसार, प्रकार्य की क्या विशेषतायें हैं, बताइये?
  27. प्रश्न- प्रकार्य एवं अकार्य में भेदों की विवेचना कीजिये?
  28. प्रश्न- "संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य" को एम. एन. श्रीनिवास के योगदान को स्पष्ट कीजिये।
  29. प्रश्न- डॉ. एस.सी. दुबे के अनुसार ग्रामीण अध्ययनों में महत्व को दर्शाइए?
  30. प्रश्न- आधुनिकीकरण के सम्बन्ध में एस सी दुबे के विचारों को व्यक्त कीजिए?
  31. प्रश्न- डॉ. एस. सी. दुबे के ग्रामीण अध्ययन की मुख्य विशेषताओं की व्याख्या कीजिये।
  32. प्रश्न- एस.सी. दुबे का जीवन चित्रण प्रस्तुत कीजिये व उनकी कृतियों का उल्लेख कीजिये।
  33. प्रश्न- डॉ. एस. सी. दुबे के अनुसार वृहत परम्पराओं का अर्थ स्पष्ट कीजिए?
  34. प्रश्न- डॉ. एस. सी. दुबे द्वारा रचित परम्पराओं की आलोचनात्मक दृष्टिकोण व्यक्त कीजिए?
  35. प्रश्न- एस. सी. दुबे के शामीर पेट गाँव का परिचय दीजिए?
  36. प्रश्न- संरचनात्मक प्रकार्यात्मक विश्लेषण का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  37. प्रश्न- बृजराज चौहान (बी. आर. चौहान) के विषय में आप क्या जानते हैं? संक्षेप में बताइए।
  38. प्रश्न- एम. एन श्रीनिवास के जीवन चित्रण को प्रस्तुत कीजिये।
  39. प्रश्न- बी.आर.चौहान की पुस्तक का उल्लेख कीजिए।
  40. प्रश्न- "राणावतों की सादणी" ग्राम का परिचय दीजिये।
  41. प्रश्न- बृज राज चौहान का जीवन परिचय, योगदान ओर कृतियों का उल्लेख कीजिये।
  42. प्रश्न- मार्क्स के 'वर्ग संघर्ष' के सिद्धान्त की व्याख्या कीजिये? संघर्ष के समाजशास्त्र को मार्क्स ने क्या योगदान दिया?
  43. प्रश्न- संघर्ष के समाजशास्त्र को मार्क्स ने क्या योगदान दिया?
  44. प्रश्न- मार्क्स के 'द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद' से आप क्या समझते हैं? मार्क्स के 'द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिये?
  45. प्रश्न- मार्क्स के 'द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद' की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिये?
  46. प्रश्न- ए. आर. देसाई का मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य स्पष्ट कीजिए।
  47. प्रश्न- ए. आर. देसाई का मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य में क्या योगदान है?
  48. प्रश्न- ए. आर. देसाई द्वारा वर्णित राष्ट्रीय आन्दोलन का मार्क्सवादी स्वरूप स्पष्ट करें।
  49. प्रश्न- डी. पी. मुकर्जी का मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य क्या है?
  50. प्रश्न- द्वन्द्वात्मक परिप्रेक्ष्य क्या है?
  51. प्रश्न- मुकर्जी ने परम्पराओं का विरोध क्यों किया?
  52. प्रश्न- परम्पराओं में कौन-कौन से निहित तत्त्व है?
  53. प्रश्न- परम्पराओं में परस्पर संघर्ष क्यों होता हैं?
  54. प्रश्न- भारतीय संस्कृति में ऐतिहासिक सांस्कृतिक समन्वय कैसे हुआ?
  55. प्रश्न- मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य की प्रमुख मान्यताएँ क्या है?
  56. प्रश्न- मार्क्स और हीगल के द्वन्द्ववाद की तुलना कीजिए।
  57. प्रश्न- राधाकमल मुकर्जी का मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य क्या है?
  58. प्रश्न- मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य की प्रमुख मान्यताएँ क्या हैं?
  59. प्रश्न- रामकृष्ण मुखर्जी के विषय में संक्षेप में बताइए।
  60. प्रश्न- सभ्यता से आप क्या समझते हैं? एन.के. बोस तथा सुरजीत सिन्हा का भारतीय समाज परिप्रेक्ष्य में सभ्यता का वर्णन करें।
  61. प्रश्न- सुरजीत सिन्हा का जीवन चित्रण एवं प्रमुख कृतियाँ बताइये।
  62. प्रश्न- एन. के. बोस का जीवन चित्रण एवं प्रमुख कृत्तियाँ बताइये।
  63. प्रश्न- सभ्यतावादी परिप्रेक्ष्य में एन०के० बोस के विचारों का विवेचन कीजिए।
  64. प्रश्न- सभ्यता की प्रमुख विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
  65. प्रश्न- डेविड हार्डीमैन का आधीनस्थ या दलितोद्धार परिप्रेक्ष्य स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- भारतीय समाज को समझने में बी आर अम्बेडकर के "सबआल्टर्न" परिप्रेक्ष्य की विवेचना कीजिये।
  67. प्रश्न- दलितोत्थान हेतु डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा किये गये धार्मिक कार्यों का विवरण प्रस्तुत कीजिये।
  68. प्रश्न- दलितोत्थान हेतु डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा किए गए शैक्षिक कार्यों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिये।
  69. प्रश्न- निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए : (1) दलितों की आर्थिक स्थिति (2) दलितों की राजनैतिक स्थिति (3) दलितों की संवैधानिक स्थिति।
  70. प्रश्न- डॉ. अम्बेडकर का जीवन परिचय दीजिये।
  71. प्रश्न- डॉ. अम्बेडर की दलितोद्धार के प्रति यथार्थवाद दृष्टिकोण को स्पष्ट कीजिए।
  72. प्रश्न- डेविड हार्डीमैन का आधीनस्थ या दलितोद्धार परिप्रेक्ष्य के वैचारिक स्वरूप एवं पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए।
  73. प्रश्न- हार्डीमैन द्वारा दलितोद्धार परिप्रेक्ष्य के माध्यम से अध्ययन किए गए देवी आन्दोलन का स्वरूप स्पष्ट करें।
  74. प्रश्न- हार्डीमैन द्वारा दलितोद्धार परिप्रेक्ष्य से अपने अध्ययन का विषय बनाये गए देवी 'आन्दोलन के परिणामों पर प्रकाश डालें।
  75. प्रश्न- डेविड हार्डीमैन के दलितोद्धार परिप्रेक्ष्य के योगदान पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
  76. प्रश्न- अम्बेडकर के सामाजिक चिन्तन के मुख्य विषय को समझाइये।
  77. प्रश्न- डॉ. अम्बेडकर के सामाजिक कार्यों पर प्रकाश डालिए।
  78. प्रश्न- डॉ. अम्बेडकर के विचारों एवं कार्यों का संक्षिप्त मूल्यांकन कीजिए।

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